8 नवंबर 2021, राष्ट्रपति भवन खचाखच भरा हुआ था। जैसे ही मेरा नाम पुकारा गया, हॉल तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठा। नंगे पांव, धोती-कुर्ता पहने पद्मश्री अवॉर्ड लेने के लिए तत्कालीन राष्ट्रपति की तरफ बढ़ा, प्रधानमंत्री, गृहमंत्री हर कोई तालियां बजा रहा था।
संतरे बेचने वाला, जो कभी स्कूल नहीं गया, कुछ पढ़ा-लिखा नहीं। हमेशा जिसका लोगों ने मजाक उड़ाया। उसे इतना बड़ा अवॉर्ड… मुझे तो पद्मश्री अवॉर्ड का मतलब भी नहीं पता था। बस इतना जानता था कोई बड़ा अवॉर्ड है। मैं बार-बार हाथ जोड़े राष्ट्रपति को देख रहा था और राष्ट्रपति मुझे कैमरे की तरफ देखने के लिए बोल रहे थे।
हर अखबार में मेरी खबर छपी, फोटो छपी। बड़े-बड़े लोग मिलने आने लगे। बड़े मंचों पर बुलाने लगे, सम्मानित करने लगे।
मैं हरेकला हजब्बा मंगलुरु से करीब 20 किलोमीटर दूर हरेकला गांव में रहता हूं। माता-पिता मजदूरी करते थे। आर्थिक स्थिति बहुत खराब थी। बड़ी मुश्किल से दो वक्त की रोटी मिलती थी। इसी वजह से स्कूल नहीं जा सका। बचपन से ही छोटा-मोटा काम करने लगा ताकि कुछ पैसे कमा सकूं।
मुझे एक जगह बीड़ी रोल करने का काम मिला। मैं दिनभर मेहनत करता था। ज्यादा से ज्यादा बीड़ी रोल करता ताकि मुझे अधिक पैसे मिल सकें। कुछ साल काम करने के बाद मैंने यह काम छोड़ दिया, क्योंकि इससे घर का खर्च नहीं चल पा रहा था।
अब मैं कुछ नया करने के बारे में सोचने लगा। पढ़ा-लिखा था नहीं और स्थानीय भाषा तुलू को छोड़कर और कोई भाषा बोल नहीं पाता था।
1978 की बात है। मुझे पता चला कि मंगलुरु के पुराने बस स्टैंड पर अंग्रेज टूरिस्ट बहुत आते हैं। उनमें से ज्यादातर संतरे खरीदते हैं। अगर मैं भी वहां संतरे बेचूं तो अच्छी कमाई हो सकती है।
इसके बाद मैं मंगलुरु बस स्टैंड गया। काफी देर तक वहां खड़े होकर, इधर-उधर घूमकर देखता रहा कि कैसे यहां संतरा बेचा जा रहा है? कितनी डिमांड है? इसमें लागत-बचत कितना है? एक हफ्ते तक लगातार वहां जाने के बाद मुझे समझ आ गया कि इसका बिजनेस कैसे किया जा सकता है और इसमें कितना मुनाफा है।
मैंने तय तो कर लिया कि संतरे बेचना है, लेकिन यह समझ नहीं आ रहा था कि संतरे खरीदूं कहां से। मेरे पास पैसे थे नहीं और मंडी में कोई बिना पैसे के संतरे देने को तैयार नहीं था। फिर मुझे इज्जक हाजी नाम के एक व्यापारी के बारे में पता लगा। वह थोक में फल बेचता था।
बात करने पर वह मुझे हर दिन संतरे उधार देने के लिए राजी हो गया। पूरे दिन संतरे बेचने के बाद जो कमाई होती, शाम को उसमें से व्यापारी को उसका हिस्सा दे देता था। उस वक्त हर दिन 50 रुपए बचा लेता था। तब 50 रुपए की कीमत बहुत होती थी। इसके बाद मैं रेगुलर संतरे बेचने लगा।
मैं हर दिन 20 किलोमीटर पैदल चलकर गांव से मंगलुरु बस स्टैंड जाता था और संतरे बेचकर देर शाम घर लौटता। इससे ठीक-ठाक कमाई हो जाती थी। घर-परिवार का खर्चा निकल जाता था।
1994 की बात है। बस स्टैंड पर एक अंग्रेज जोड़ा मिले। वे मेरे पास आकर कुछ पूछने लगे। मुझे उनकी भाषा समझ नहीं आई। शायद वे भाव पूछ रहे थे, लेकिन मैं नहीं समझ सका। काफी देर तक वे मुझे समझाने की कोशिश करते रहे।
फिर वे गुस्सा गए। झल्लाते हुए, कुछ बोलते हुए दूसरे दुकानदार के पास चले गए। मुझे बहुत तकलीफ हुई। मैं पढ़ा-लिखा नहीं था तो अंग्रेज बेइज्जत करके चले गए। घर लौटा तो काफी परेशान रहा। कई दिनों तक मन ही मन घुटन होती रही। मैं सोचता रहा कि क्या करूं कि कल को किसी और गरीब का कोई मजाक नहीं उड़ा पाए।
गांव में कोई स्कूल नहीं था। ज्यादातर बच्चों को स्कूली शिक्षा नहीं मिल पाती थी। मैंने तय किया कि मैं भले नहीं पढ़ पाया, लेकिन गांव के बच्चे अब अनपढ़ नहीं रहेंगे, लेकिन मुझे यह समझ नहीं आ रहा था कि ये सब करूं कैसे, कोई मुझे बताने वाला भी नहीं था।
इसी बीच किसी ने बताया कि विधायक से मिलिए। वे इसके बारे में कुछ बताएंगे। मैं फौरन विधायक से मिलने पहुंच गया। मैंने विधायक से कहा कि गांव में स्कूल नहीं है। कोई बच्चा पढ़ाई नहीं कर पा रहा है। मैं चाहता हूं आप गांव में 10वीं तक एक स्कूल खुलवा दीजिए।
विधायक ने मेरी तरफ देखा और मुस्कुराने लगे। मुझे बहुत तकलीफ हुई। मैं सोचने लगा कि विधायक के पास स्कूल की उम्मीद लिए आया था और ये मेरा मजाक उड़ा रहे। कुछ देर बाद विधायक ने कहा कि जो भी मांग है, उसकी लिखित अर्जी दो।
विधायक ने सोचा कि ये ऐसे ही चला आया है, फिर लौटकर नहीं आएगा, पर मैं तो धुन का पक्का था। मुझे अब और कुछ सूझ ही नहीं रहा था। सोते-जागते स्कूल के बारे में ही सोचता था। घर लौटने के बाद सोचने लगा कि किससे अर्जी लिखवाऊं, क्या लिखवाऊं