आपने ग्रीन कॉरिडोर का नाम सुना होगा। सायरन बजाती एंबुलेंस जिस रास्ते से गुजरती है, वहां के सभी ट्रैफिक पोस्ट अलर्ट मोड में आ जाते हैं। सबसे पहले एंबुलेंस को रास्ता दिया जाता है, जिससे मरीज अस्पताल जल्दी पहुंचे और इलाज शुरू हो सके। लेकिन जब मरीज को कई यूनिट ब्लड की जरूरत हो तो ग्रीन कॉरिडोर से भी समस्या हल नहीं होती। समय पर ब्लड नहीं मिलने से मरीज की मृत्यु तक हो जाती है।
इन परेशानियों का हल है ‘मेडिकल ड्रोन’। खून की थैलियां और मेडिसिन लिए ट्रैफिक के झंझट से दूर और ग्रीन कॉरिडोर से कहीं आगे मेडिकल ड्रोन हवा में उड़कर एक अस्पताल से दूसरे अस्पताल आसानी से पहुंच जाते हैं।
‘इंडियन काउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च’ की सफल कोशिशों से पहली बार देश में ब्लड और उसके कॉम्पोनेंट्स (प्लाज्मा, रेड ब्लड सेल्स, वाइट ब्लड सेल्स, प्लेटलेट्स) को ड्रोन से भेजे जाने को तैयार है ।
ग्रीन कॉरिडोर से एंबुलेंस ने लिया आधा घंटा, मेडिकल ड्रोन ने 15 मिनट
गवर्नमेंट इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल साइंसेज (GIMS) ग्रेटर नोएडा और जेपी इंस्टीट्यूट नोएडा के बीच 11 मई 2023 को 10 यूनिट ब्लड भेजा गया।
35 किमी की दूरी ड्रोन ने महज 15 मिनट में पूरी की। जबकि इसी दौरान एंबुलेंस ने आधे घंटे का समय लिया। खास बात यह रही कि ड्रोन से भेजे गए ब्लड की क्वालिटी में कोई खराबी नहीं आई।
इसके पहले, कोविड के समय मणिपुर, नगालैंड और अंडमान-निकोबार में I-ड्रोन से वैक्सीन पहुंचाई गई थी। गुजरात के कच्छ में 46 किमी की दूरी तय करके ड्रोन से मेडिकल पार्सल पहुंचाने का ट्रायल किया जा चुका है।
ड्रोन का इस्तेमाल एग्रीकल्चर, माइनिंग, इंफ्रास्ट्रक्चर, डिफेंस, सर्विलांस में पहले से हो रहा है। अब मेडिकल फील्ड में भी होने जा रहा है।
6 किलो के मेडिकल ड्रोन में 2 किलो तक सामान भेजना संभव
ड्रोन सामान्य रूप से तीन चीजों से मिलकर बनते हैं एयर फ्रेम, प्रोपल्सन और नेविगेशन सिस्टम। इसमें कई तरह के कॉन्फिगरेशन, टूल्स और एप्लीकेशंस होते हैं।
अब बहुत छोटे ड्रोन एयरक्राफ्ट भी बनाए जा रहे हैं जिनमें प्रोसेसर्स, माइक्रो इलेक्ट्रिकल मैकेनिकल सिस्टम (MEMS) सेंसर और स्मार्ट बैटरी (लिथियम) का इस्तेमाल किया जा रहा है।
मेडिकल ड्रोन को सामान्य ड्रोन के मुकाबले अलग तरीके से डिजाइन किया जाता है जिसमें फोकस नेविगेशन पर होता है। दवाएं, वैक्सीन, ब्लड सैंपल, ब्लड बैग्स को ठीक तरीके से ड्रोन के चैंबर में रखा जाता है।
इन्हें एक स्थान से दूसरे स्थान तक पहुंचाने के लिए ड्रोन ऑपरेटर या पायलट ज्यादा एहतियात बरतते हैं। ड्रोन की क्षमता के अनुसार दवाएं भेजी जाती हैं। अगर ड्रोन का वजन छह किलो है तो इस पर 2 से 3 किलो तक की दवाएं भेजी जा सकती हैं।
हार्ट अटैक जैसे मामलों में जान बचाने के लिए बने मेडिकल ड्रोन
भारत में दवाएं, ब्लड, सर्जिकल आइटम्स, वैक्सीन सब कुछ अधिकतर सड़क के रास्ते भेजा जाता है। लेकिन खराब मौसम, एक्सीडेंट, ट्रैफिक जाम के कारण समय पर दवाएं नहीं पहुंच पातीं।
इंडियन काउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च (ICMR) की एक रिपोर्ट के अनुसार, हार्ट अटैक के 50% से अधिक मामलों में मरीज समय पर अस्पताल नहीं पहुंच पाते।
ICMR की साइंटिस्ट डॉ. मीनाक्षी शर्मा ने बताया कि हार्ट अटैक के लक्षण आने से 30 मिनट के अंदर मरीज को अस्पताल पहुंच जाना चाहिए। लेकिन दुर्भाग्य से मरीज को औसतन 400 मिनट यानी 6.5 घंटे से अधिक समय लग जाता है। तब तक मरीज की क्रिटिकल कंडीशन हो जाती है।
मेदांता हॉस्पिटल, रांची में कार्डियक सर्जन डॉ. संजय कुमार ने बताया कि हार्ट अटैक के पेशेंट के लिए एक-एक पल कीमती होता है।
लेकिन दूरदराज के एरिया में, जहां आवाजाही के साधन पर्याप्त नहीं हैं वहां ये कीमती समय बर्बाद होता है। मेडिकल ड्रोन्स के जरिए पीड़ित व्यक्ति को तत्काल मदद पहुंचाई जा सकेगी।
नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो (NCRB) की रिपोर्ट बताती है कि देश में 24 हजार से अधिक लोग मेडिकल हेल्प में देरी होने के कारण हर दिन अपनी जान गंवाते हैं।
ऐसे में ट्रेडिशनल सिस्टम से निकलकर मेडिकल ड्रोन्स हेल्थ सेक्टर में नया रेवोल्यूशन लाने में कामयाब होंगे।