एक खबर के अनुसार ” सुप्रीम कोर्ट ने लोकपाल मामले में कहा है कि हाई कोर्ट के जस्टिस संवैधानिक अथॉरिटी हैं ये किसी अन्य के दायरे में नहीं आते। जब इंश्योरेंस या बैंकिंग सेक्टर के अलावा कई सरकारी सेक्टर में लोकपाल हो सकते हैं तो जुडिशरी में लोकपाल क्यों नहीं होना चाहिए। क्या जुडिशरी में कार्यरत सभी कर्मचारी अर्थात जज भी सरकारी कर्मचारी नहीं हैं ? .क्या वे सरकार से वेतन नहीं लेते। क्या उसके फैसलों से जनता असहमत नहीं हो सकती ? अभी हाल ही में महाराष्ट्र के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा “सरकारी अधिकारी दबाव में आ सकते हैं , न्यायपालिका नहीं : क्या ये विवादास्पद बयान नहीं है। आखिर न्यायाधीश खुद को इतना सर्वोपरि क्यों मानते हैं। न्यायपालिका बार बार ये कहती है कि संसद द्वारा बनाये गए कानून का उसे समीक्षा करने का पूरा अधिकार है। क्या जज महोदय ये बता सकते हैं कि संविधान में ये कहाँ लिखा है कि वो ऐसा कर सकती है। कॉलेजियम सिस्टम बनाने का अधिकार संविधान की किस धारा के तहत उन्हें मिला है। मोदी सरकार द्वारा लाये गए नेशनल जुडिशल कमीशन को सुप्रीम कोर्ट ने तुरंत रद्द कर दिया। क्या ये सरकारी मामलों में दखलंदाजी नहीं है। कई बार सरकारी और संवैधानिक पदों पर बैठे शीर्ष लोगों को कोर्ट धमकाती और फटकारती नजर आती है क्या ये सही है ? हकीकत ये है कि न्यायपालिका आज खुद को विधानपालिका और कार्यपालिका से खुद को सर्वोपरि समझने की आदी हो चुकी है।
एक मामले में लोकपाल ने अपने एक आदेश में कहा था कि हाई कोर्ट राज्य के लिए संसद द्वारा बनाये गए अधिनियम के तहत स्थापित किया गया था इसलिए ये लोकपाल अधिनियम ,2013 की धारा (14 )(1) (F ) के अंतर्गत आता है। इसी पर विवाद उत्पन्न हो गया कि जजों के ऊपर भी कोई हो सकता है। आखिर न्यायपालिका को इतनी छूट क्यों दी जानी चाहिए। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि हाई कोर्ट के जजों को स्वतंत्र प्राधिकारी माना गया है। अब समय आ गया है जब न्यायपालिका के ऊपर एक प्राधिकरण होना चाहिए जो उसके फैसलों और कार्यों की समीक्षा कर सके और जनता के प्रति कोर्ट की जवाबदेही तय की जा सके।
PAWAN GOSAIN