गुजरात में आ रहे चक्रवात बिपरजॉय के खतरे ने 24 साल पुराने सुपर साइक्लोन की यादें ताजा कर दी हैं। 29 अक्टूबर 1999 की सुबह 10:30 बजे यह तूफान ओडिशा के तटीय किनारों से टकराया था।
हवा की रफ्तार इतनी ज्यादा थी कि पारादीप में लगा मौसम विभाग का एनीमोमीटर भी रिकॉर्ड नहीं कर सका। करीब 36 घंटे तक 260 किमी की रफ्तार से हवाएं चलती रहीं।
इस सुपर साइक्लोन में मौतों का आधिकारिक आंकड़ा 9,885 था, जबकि कुछ सोर्स बताते हैं कि 50 हजार से ज्यादा लोग मारे गए। 3 लाख से ज्यादा मवेशियों की मौत हुई और 16 लाख से ज्यादा घर डैमेज हुए।
यह ऐसा तूफान था जिसने उस समय की सरकार ही नहीं, प्राकृतिक आपदा पर काम करने वाले वैज्ञानिकों, रिर्सचरों और अन्य लोगों को हिलाकर रख दिया। सबको एहसास हुआ कि अगर तूफानों में इतनी तबाही होती रही तो डेवलपमेंट का कोई मतलब नहीं रह जाएगा। हर तूफान के साथ ही विकास 20-25 साल पीछे चला जाएगा।
इसके बाद से ही तूफानों का सामना करने की स्ट्रैटजी पर फिर से विचार किया गया। कई स्तर पर काम हुए और शायद यही वजह है कि पिछले दो दशकों में भारत ने कई खतरनाक चक्रवात देखे, लेकिन उनमें मौतों का आंकड़ा 100 से कम ही रहा है।
एक्सपर्ट्स का मानना है कि भारत ने 3 स्ट्रैटजी पर काम किया, जिससे अब भारत में बिपरजॉय जैसे तूफान ज्यादा जानलेवा नहीं होते…
1. सटीक ट्रैकिंग: साइक्लोन को ट्रैक करने के लिए 7 एडवांस सेंटर्स
भारत के तीन मौसम वैज्ञानिकों ने 2009 में साइक्लोन की भविष्यवाणी के लिए एक NWP बेस्ड मॉडल डेवलप किया। इस मॉडल के जरिए तूफानों को समय रहते सटीक ट्रैक करना आसान हो गया और भविष्यवाणी पहले के मुकाबले कई गुना बेहतर हो गई। इसकी कैलकुलेशन मौसम विभाग के सुपर कंप्यूटर्स करते हैं।
ट्रैकिंग में यह देखा जाता है कि उसकी तीव्रता यानी इंटेन्सिटी कितनी है, उसकी स्पीड कितनी है, उसकी दिशा क्या है आदि। इसे भी रियल टाइम अपडेट किया जाता है। यानी कब तूफान अपने चरम पर होगा और कब धीमा पड़ेगा।
इससे यह पता चल जाता है कि यह कहां गिरेगा यानी लैंड फॉल कहां होगा और वहां तक पहुंचने में कितने दिन लगेंगे। अमूमन 4 से 6 दिन पहले इसकी जानकारी मिल जाती है। तूफान के स्थान और तीव्रता के आधार पर मैदानी तैयारी करने का अवसर मिल जाता है। यही वजह है कि अब तूफान में मानवीय नुकसान कम से कम होता है।
देश के पूर्वी और पश्चिमी तटों पर चक्रवात की चेतावनी जारी करने के लिए 7 साइक्लोन वार्निंग सिस्टम लगाए गए हैं। इनमें से तीन एरिया साइक्लोन वार्निंग सिस्टम यानी ACWCs हैं। इन्हें चेन्नई, मुंबई और कोलकाता में लगाया गया है। वहीं चार साइक्लोन वार्निंग सेंटर्स हैं जिन्हें अहमदाबाद, तिरुवनंतपुरम, विशाखापट्टनम और भुवनेश्वर में लगाया गया है।
2013 में आए तूफान फैलिन, 2014 में हुदहुद, 2016 में वरदा, 2018 में तितली, 2019 में फनी और बुलबुल, 2020 अम्फान, निसर्ग और निवार के समय साइक्लोन वार्निंग सिस्टम ने बेहतर काम किया। यही वजह है कि चक्रवात के कारण होने वाली जान-माल की हानि डबल डिजिट में सिमट गई है। यानी ऐसे चक्रवात आने पर मौतों का आंकड़ा 100 से ज्यादा नहीं हुआ।