दिल्ली में पावर की लड़ाई और बढ़ गई है। सुप्रीम कोर्ट ने कुछ दिनों पहले कहा था कि भले ही दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा प्राप्त न हो, लेकिन वहाँ संघ-राज्य व्यवस्था कुछ हद तक तो लागू होनी ही चाहिए। सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने फ़ैसला दिया था कि पुलिस, क़ानून- व्यवस्था और भूमि को छोड़ बाक़ी सभी मामलों में दिल्ली की चुनी हुई सरकार को तमाम फ़ैसले लेने का हक़ है।
यानी इन तीन विषयों को छोड़कर अन्य सभी मामलों में एलजी को दिल्ली सरकार की सलाह पर काम करना होगा। इस फ़ैसले से दिल्ली क्षेत्र के तहत काम करने वाले तमाम अफ़सरों के ट्रांसफ़र आदि का अधिकार केजरीवाल सरकार के पास आ गए थे।
संविधान पीठ के इस फ़ैसले से दिल्ली की केजरीवाल सरकार को बड़ी राहत मिली थी। एलजी और उनके निकटस्थ अफ़सर जो दिल्ली सरकार की हर फाइल पर कुण्डली मारे बैठे रहते थे, उन सबको बड़ी हताशा हुई थी। यही नहीं, फ़ैसले से केंद्र सरकार के हित भी आहत हुए ही होंगे क्योंकि केंद्र सरकार ने कभी नहीं चाहा कि केजरीवाल सरकार को स्वतंत्र रूप से फ़ैसले करने का अधिकार मिले।
फिर क्या था! शुक्रवार की आधी रात सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले को पलट दिया गया। वापस दिल्ली के तमाम फ़ैसलों के अधिकार एलजी को दे दिए गए। अब सवाल उठता है कि क्या सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले को इस तरह रातोंरात पलटा जा सकता है? जी, जब संसद का सत्र नहीं चल रहा हो, तब अध्यादेश लाकर यह किया जा सकता है। इस तरह का अध्यादेश केंद्र सरकार के आग्रह पर राष्ट्रपति द्वारा जारी किया जाता है। राज्यों के मामले में अध्यादेश राज्यपाल के दस्तख़त से जारी किया जाता है।
दो ही शर्तों में अध्यादेश नहीं लाया जा सकता। नागरिकों के मूल अधिकार अध्यादेश के ज़रिए नहीं छीने जा सकते और संविधान की मूल भावना को इस तरह के अध्यादेश से बदला नहीं जा सकता। अध्यादेश दरअसल, संसद से पारित क़ानून की ही अहमियत रखता है। जब भी संसद का सत्र बुलाया जाता है, इस तरह के अध्यादेश को उसमें पारित कराना ज़रूरी होता है। वह भी छह महीने के भीतर।
अब सवाल यह उठता है कि क्या इस तरह के अध्यादेश को कोर्ट में चुनौती दी जा सकती है या नहीं? ज़रूर दी जा सकती है, लेकिन यह सुप्रीम कोर्ट, ख़ासकर मुख्य न्यायाधीश पर निर्भर है कि वह इसके लिए वापस संविधान पीठ गठित करते हैं या नहीं! वरिष्ठ वकील अभिषेक मनु सिंघवी का कहना है कि यह वैमनस्यता से लाया गया अध्यादेश है। सुप्रीम कोर्ट का फ़ैसला संविधान की भावना के अनुकूल था।
उस फ़ैसले को इस तरह पलटना ठीक नहीं है। फिर भी हम इस अध्यादेश का अध्ययन कर रहे हैं। चुनौती देने के बारे में विचार भी किया जा रहा है। ख़ैर, दिल्ली और केंद्र के बीच अधिकारों को लेकर यह लड़ाई चलती रहेगी। दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल तो इस अध्यादेश को सुप्रीम कोर्ट की अवमानना बता रहे हैं। हालाँकि पहले भी अध्यादेश के ज़रिए सुप्रीम कोर्ट के आदेशों को पलटा जा चुका है।